Thursday, 29 June 2017

महान रामभक्त संत कबीर गुरु नानक देव संत रविदास और संत तुलसीदास

संत कबीर 
 'हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं, 'हरि जननी मैं बालक तोरा'।

राम बिनु तन को ताप न जाई।
जल में अगन रही अधिकाई॥
राम बिनु तन को ताप न जाई॥
तुम जलनिधि मैं जलकर मीना।
जल में रहहि जलहि बिनु जीना॥
राम बिनु तन को ताप न जाई॥
तुम पिंजरा मैं सुवना तोरा।
दरसन देहु भाग बड़ मोरा॥
राम बिनु तन को ताप न जाई॥
तुम सद्गुरु मैं प्रीतम चेला।
कहै कबीर राम रमूं अकेला॥
राम बिनु तन को ताप न जाई॥


भजो रे भैया राम गोविंद हरी ।
राम गोविंद हरी भजो रे भैया राम गोविंद हरी ॥
जप तप साधन नहिं कछु लागत, खरचत नहिं गठरी ॥
संतत संपत सुख के कारन, जासे भूल परी ॥
कहत कबीर राम नहीं जा मुख, ता मुख धूल भरी ॥


गुरु नानक देव

राम सुमिर, राम सुमिर, एही तेरो काज है॥
मायाकौ संग त्याग, हरिजूकी सरन लाग।
जगत सुख मान मिथ्या, झूठौ सब साज है॥१॥
सुपने ज्यों धन पिछान, काहे पर करत मान।
बारूकी भीत तैसें, बसुधाकौ राज है॥२॥
नानक जन कहत बात, बिनसि जैहै तेरो गात।
छिन छिन करि गयौ काल्ह तैसे जात आज है॥३॥

संत रविदास 

परचै राम रमै जै कोइ।
पारस परसें दुबिध न होइ।। टेक।।
जो दीसै सो सकल बिनास, अण दीठै नांही बिसवास।
बरन रहित कहै जे रांम, सो भगता केवल निहकांम।।१।।
फल कारनि फलै बनराइं, उपजै फल तब पुहप बिलाइ।
ग्यांनहि कारनि क्रम कराई, उपज्यौ ग्यानं तब क्रम नसाइ।।२।।
बटक बीज जैसा आकार, पसर्यौ तीनि लोक बिस्तार।
जहाँ का उपज्या तहाँ समाइ, सहज सुन्य में रह्यौ लुकाइ।।३।।
जो मन ब्यदै सोई ब्यंद, अमावस मैं ज्यू दीसै चंद।
जल मैं जैसैं तूबां तिरै, परचे प्यंड जीवै नहीं मरै।।४।।
जो मन कौंण ज मन कूँ खाइ, बिन द्वारै त्रीलोक समाइ।
मन की महिमां सब कोइ कहै, पंडित सो जे अनभै रहे।।५।।
कहै रैदास यहु परम बैराग, रांम नांम किन जपऊ सभाग।
ध्रित कारनि दधि मथै सयांन, जीवन मुकति सदा निब्रांन।।६।।


रांम राइ का कहिये यहु ऐसी। 
जन की जांनत हौ जैसी तैसी।। टेक।। 
मीन पकरि काट्यौ अरु फाट्यौ, बांटि कीयौ बहु बांनीं। 
खंड खंड करि भोजन कीन्हौं, तऊ न बिसार्यौ पांनी।।१।। 
तै हम बाँधे मोह पासि मैं, हम तूं प्रेम जेवरिया बांध्यौ। 
अपने छूटन के जतन करत हौ, हम छूटे तूँ आराध्यौ।।२।। 
कहै रैदास भगति इक बाढ़ी, अब काकौ डर डरिये। 
जा डर कौं हम तुम्ह कौं सेवैं, सु दुख अजहँू सहिये।।३।।

संत तुलसीदास 

मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ॥


अर्थात – हे रघुवीर, मेरे जैसा कोई दीनहीन नहीं है और तुम्हारे जैसा कोई दीनहीनों का भला करने वाला नहीं है. ऐसा विचार करके, हे रघुवंश मणि.. मेरे जन्म-मृत्यु के भयानक दुःख को दूर कर दीजिए.

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ॥

अर्थात – जैसे काम के अधीन व्यक्ति को नारी प्यारी लगती है और लालची व्यक्ति को जैसे धन प्यारा लगता है,वैसे हीं हे रघुनाथ, हे राम, आप मुझे हमेशा प्यारे लगिए.

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